पौराणिक कथाओं तथा सबूतों के आधार पर वर्तमान समय में काशी विश्वनाथ के दरबार के ठीक सामने जो ज्ञानवापी मस्जिद खड़ा है वास्तव में वह पहले ज्ञानवापी मंदिर था। जिसे औरंगजेब ने तोड़कर वहां पर मस्जिद का निर्माण करवाया था परंतु वह निर्माण करवाने में इतनी जल्दी किया कि उसने मंदिर के पूरे सबूतों को ना मिटा सका। आज भी मस्जिद के पीछे वाले हिस्से का पूरा ढांचा मंदिर का है तथा मस्जिद के अनेक स्थानों में हिंदू धर्म के भगवानों की मूर्ति खंडित हुई मिली हैं।
आज के इस ब्लॉग में हमेशा जानेंगे कि आखिरकार औरंगजेब ने विश्वनाथ मंदिर को तोड़कर वहां पर मस्जिद का निर्माण कैसे करवाया तथा काशी से जुड़े अनेक प्रश्नों का जवाब भी हम इसमें देंगे…
मैं श्री काशी विश्वनाथ का नंदी बोल रहा हूं। मैं आज आपको सब कुछ सच बता सकता हूं सिर्फ इसके लिए मुझे 2 मिनट लगेगा। परंतु मेरे आंखों से जो आंसू बह रहे हैं उसे आप महसूस नहीं कर पाओगे। मैंने अपने ऊपर बड़े-बड़े हथौड़ों, भालाओं तथा कई सारे वार को झेले हैं। यह दर्द और पीड़ा मैंने आज तक किसी को नहीं बताई मेरी पीड़ा तो केवल मेरे आराध्य ( महादेव) ही जानते हैं।
मैं कई सदियों से यहां बैठा हुआ हूं। मुझे कहने में भी शर्म आ रही है कि मेरे चाहने वालों को भी यह नहीं पता है कि मुझे किसने और कब स्थापित किया था। लेकिन मैं आपको बता दूं कि मैं आदि अनादि काल से ही अपने प्रभु को निहारते आया हूं। परंतु कुछ समय बाद मेरे आंखों के सामने केवल अंधकार छा गया था इस अंधकार को मेरे अलावा कोई और नहीं जान सकता। मैंने बहुत पीड़ा देखी है मैंने वह पीड़ा सहन किया है।
जब पहली बार 1194 में मोहम्मद गौरी नामक एक लुटेरे ने मेरे आराध्य का मंदिर तोड़कर कर उसे लूट लिया था। परंतु कुछ समय बाद कुछ लोगों ने मिलकर मेरे आराध्य का मंदिर फिर से स्थापित कर दिया और मुझे देख कर बहुत ही अच्छा लगा और मुझे या आभास हुआ कि शायद मैं फिर से हमेशा के लिए अपने प्रभु को निहारता रहूंगा। लेकिन एक बार फिर मैंने 1447 में यह दृश्य देखा जहां पर कभी दूध की नदियां बहा करती थी वहां मैंने रक्त की नदियां बहती हुई देखा। जौनपुर के द्वारा या फिर से तोड़ दिया गया था। एक बार फिर से मेरे आराध्य का मंदिर और अनेकों मूर्ति को खंडित कर दिया गया।
यदि इस विश्व में कोई पीड़ितों का देश होगा तो वह मेरा ही देश होगा। जिसको मैंने चाहा है तथा जिस किला से गुजरा हूं उसके बारे में मैंने किसी के मुख से अपनी चर्चा नहीं सुनी। मैं असहाय केवल एक वीरान भूमि पर बैठे हुए इस खूनी खेल को देखता रहा। एक बार फिर से मैंने प्रसन्नता का आभास किया क्योंकि सन 1585 में राजा टोडरमल की मदद से पंडित नारायण भट्ट द्वारा भव्य मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया गया। मैं प्रसन्नता के मारे नाचने लगा क्योंकि मैंने पुनः वही वैभवता प्राप्त कर लिया था।
परंतु कुछ वर्षों बाद मेरी इस प्रसन्नता को किसी की बुरी नजर लग गई। अमेरिका के इतिहासकार ने अपनी किताब में लिखा था। भारत में जितने भी अत्याचार हुए हैं उसका वर्णन कोई भी कभी भी अच्छे तरीके से नहीं किया वरना हिंदुओं ने जो यातनाएं झेली है उसका वर्णन करना बहुत ही मुश्किल हो जाता।
एक बार फिर 1632 में शाहजहां ने मंदिर को तोड़ने का आदेश दिया। मंदिर को तोड़ने के साथ-साथ उसने अपने सैनिकों के आदेश दिया कि मूर्तियों को भंजन कर दो और हिंदुओं का विनाश कर दो। फिर क्या हुआ मूर्तियों को तोड़ दिया गया और हजारों की संख्या में हिंदुओं को मौत के घाट उतार दिया गया। शाहजहां का विरोध हिंदुओं ने मिलकर किया। जिस नगरी में कभी भजन और कीर्तन हुआ करते थे वहां पर खूनी खेल हो रहे थे। मूर्ति पूजा को को मूर्ति पूजा दंड दिया जा रहा था। जिन पंडितों के हाथ में वेद पुराण थे उनके हाथ में ने कटते हुए देखें। हिंदुओं के विरोध के कारण मुगल सेना मंदिर को नहीं तोड़ पायी। परन्तु उसने काशी के अन्य 63 मंदिर को तोड़ दिया। शाहजहां की सेना तो चली गई परंतु उसके पीछे मैंने जो नरसंहार देखा वह आज भी मेरे मुझे को झकझोर देता है।
जैसे तैसे कुछ वर्ष विशेष तभी एक और हमलावर औरंगजेब ने 18 अप्रैल 1669 ज्ञानवापी मंदिर तोड़ने का आदेश दिया। एक बार फिर से मोतीपुर को के ऊपर अत्याचार शुरू हुआ। औरंगजेब की मूर्ति तोड़ने के आदेश को आज भी कोलकाता के लाइब्रेरी में सुरक्षित रखा हुआ है। 1669 में काशी को एकदम ध्वस्त कर दिया गया तथा ज्ञानवापी मंदिर के गृह का अनादर किया गया औरंगजेब ने ज्ञानवापी मंदिर को तोड़कर वहां पर ज्ञानवापी मस्जिद खड़ा कर दिया। मैं यह सब दृश्य चुपचाप देखा रहा और अपनी आंखें बंद कर अंधकार में डूब गया।
फिर 1669 की एक शाम आई। मेरे ही सामने प्रति आक्रमण कार्य लिखे जा रहे थे कि मंदिर तोड़ दिया गया है और हिंदू मूर्तियों का अनादर किया जा चुका है। यह सूचना औरंगजेब को दे दी गई और उसी ज्ञानवापी परिसर में मस्जिद का निर्माण कर दिया गया। मेरे प्रभु आराध्य का अनादर किया गया। मैं आज भी उस हनुमान का इंतजार करता हूं जिन्होंने अपने प्रभु को हर मुसीबतों से बचाया। मैं अपनी आंखों के सामने हमेशा प्रभु के दर्शन करता था पर अब यह नहीं हो सकता था… औरंगजेब ने मुझे भी तोड़ने की बहुत कोशिश की मुझ पर अनेक प्रकार के भाले हथौड़े चलाएं और जब मुझे यह सब नुकसान न पहुंचा सके तो उसने मुझे जड़ से उखाड़ फेंकने की कोशिश की परंतु या इन सब में नकार हो गया।
मस्जिद बनाए जाने के 125 साल बाद भी ज्ञानवापी परिसर में कोई मंदिर नहीं बना। और फिर समय आया 1735 का महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने ज्ञानवापी मस्जिद के पास काशी विश्वनाथ मंदिर का निर्माण करवाया। सलाह दी कि मुझे उस स्थान से हटा कर ले मंदिर के सामने स्थापित किया जाए। महारानी अहिल्याबाई होलकर नंदी महाराज को यहीं बैठे अपने प्रभु का स्मरण करना होगा। चाहे कितनी भी व्यस्त क्यों ना बीत जाए नंदी महाराज अपने आराध्य की प्रतीक्षा करनी होगी। आज भी मेरे कान में गूंजता है। कभी-कभी मैं टूट जाता हूं, दिल बैठ जाता है आंखों से आंसू की बूंदे टपकने लगते हैं परंतु मैं देवी अहिल्याबाई का वह वाक्य स्मरण कर लेता हूं। मुझे शक्ति मिलती है और मैं फिर से प्रतीक्षा में लीन हो जाता हूं।
मेरी इस पर का विवाह पहली बार तब उठा जब मेरे हिंदू समुदाय के लोगों को यह लगा कि उनके साथ कुछ अन्याय हुआ है। तब उन्होंने निगम गुंबद रूपी मस्जिद को सौंपने की पेशकश की। 23 दिसंबर 1810 को बनारस के तत्कालीन जिलाधिकारी मि. वाटमन ने पत्र लिख घर ज्ञानवापी मस्जिद के असली मालिक हिन्दुओं की सौंपने की मांग की। लेकिन यह काम पूरा न हो सका। आगे आपको बताता चालू की 1829 से 1830 तक ग्वालियर की महारानी वैजावाई ने मंदिर में ज्ञानवापी मंडप का निर्माण करवाया था। और नेपाल के महाराजा ने मेरी प्रतिमा स्थापित करवाई थी। मुझे दुख इस बात का हुआ कि उस समय मेरे इस परिसर का जिक्र जामा मस्जिद ज्ञानवापी के रूप में हुआ।
लेकिन एक बार फिर मैंने मन में प्रसन्नता महसूस की। एक बार फिर 1980 के दशक में विश्व हिन्दू परिषद ने ज्ञानवापी मस्जिद के स्थान पर मंदिर बनाने के लिए राष्ट्रव्यापी आंदोलन चलाया था। हिंदू पक्ष की ओर से कुछ विद्वान थे जिनके में नाम ले रहा हूं – हरिहर पांडे, सोमनाथ व्यास, रामरंग शर्मा इन्होंने मेरे प्रभु के परिसर को संरक्षण में लेने के लिए एक याचिका दायर की। परंतु उस काल के डायल के ऊपर यह कह डाला कि पूजा स्थल अधिनियम 1991 के अनुसार जो 15 अगस्त 1947 तक अस्तित्व में आए हुए किसी भी धर्म के पूजा स्थल को एक आस्था से दूसरे धर्म में परिवर्तित करने पर रोक लगाता है। यह सुनकर मेरा ह्रदय बहुत ही दुखी हो गया। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने स्टे लगाकर इसे यथास्थिति बनाए रखने का आदेश दिया।
इस प्रकार से यह विवाद ऐसे ही चलता रहा और मैं अपने प्रभु का स्मरण सब्र की गंगा में डुबकी लगाकर करता रहा। प्रतीक्षा करते करते समय आया 2021 का मुझे कुछ देवी लोगों ने मेरे लिए न्यायालय में याचिका दर्ज की। उन्होंने ज्ञानवापी मस्जिद के परिसर में गौरी पूजा करने की हक मांगी। और ज्ञानवापी परिसर में वीडियोग्राफी द्वारा सर्वे करने की मांग की गई। वैसे मुझे अब तक का यही इंतजार था कि मेरे प्रभु का दर्शन मुझे फिर से प्राप्त होगा।
फिर समय आया 2023 का मैं बात कर रहा हूं वर्तमान समय का एक बार फिर से विवाद कोर्ट में पेश होने जा रहा हूं और मैं बेसब्री से इंतजार कर रहा हूं कि कब मेरे प्रभु का मुझे दर्शन प्राप्त होगा और उसी स्थान पर भव्य मंदिर का निर्माण होगा।
दरअसल, काशी विश्ननाथ मंदिर में विराजे नंदी का मुंह मस्जिद की तरफ है. मंदिर-मस्जिद के बीच लोहे की ग्रिल लगी हुई है. दावा है कि उस पत्थर से नंदी की दूरी 83 फीट है. इसीलिए हिंदू पक्ष का कहना है कि वजूखाने में शिवलिंग ही है, वहीं हिंदू पक्ष के वकीलाें का कहना है कि अगर यह शिवलिंग नहीं है, तो नंदी का मुंह मस्जिद की ओर क्यों है?
वर्तमान में लिंगम गेंदे के पहाड़ के नीचे गायब हो जाता है। आरती, तेल के दीपक द्वारा प्रणाम, शुरू होती है। इस पूर्व-भोर अनुष्ठान में भाग लेने वाले लोग दिन में केवल दो बार भक्तों को मिलने वाले विशेषाधिकार के हकदार हैं: लिंगम को छू सकते। शिवजी के दरबार में दूर से उनका दर्शन प्राप्त करके अपने घर वापस जाते हैं।
दशाश्वमेध घाट विश्वनाथ मंदिर के करीब स्थित है, और शायद सबसे शानदार घाट है। दो हिंदू पौराणिक कथाएं इसके साथ जुड़ी हुई हैं: एक के अनुसार, भगवान ब्रह्मा ने भगवान शिव का स्वागत करने के लिए इसे बनाया था। दशा सुमेर घाट पर ब्रह्मा जी ने 10,000 घोड़ों का यज्ञ करवाया था इसलिए इसका नाम दशाश्वमेध है। इसी घाट पर प्रत्येक वर्ष प्रत्येक दिन तथा अपने निर्धारित समय पर गंगा मां का भव्य आरती होता है जो पूरे विश्व में प्रसिद्ध गंगा आरती है।
श्री काशी विश्वनाथ जिसे विशेस्वम नाम से भी जाना जाता है। इन्हें काशी के नाथ देवता भी कहा जाता है कि जिस बिंदु पर पहले ज्योतिर्लिंग, जो दिव्या प्रकाश में स्थित शिव का प्रकाश है. काशी में घाट और उत्तरवाहिनी गंगा एवं मंदिर में स्थापित शिवलिंग वाराणसी को धर्म, अध्यात्म, भक्ति एवं ध्यान का महत्वपूर्ण केंद्र की ख्याती प्रदान करता है.. तथा यह काशी नगरी सप्त पूरी में से एक है तथा यहां पर 12 ज्योतिर्लिंगों में से 7 वर्ष में स्थापित है।
विश्वनाथ मंदिर, गंगा घाट, सारनाथ,बीएचयू और अन्य स्थल दोनों स्टेशनों से पांच से दस किलोमीटर के अंदर ही स्थित हैं। आइये जाने बनारस में कहां-कहां घूमा जा सकता है। अगर आप वाराणसी की यात्रा करने जा रहे हैं तो काशी विश्वनाथ मंदिर सबसे बड़ा आकर्षण है। विश्वनाथ धाम बनने के बाद से इसकी अलौकिकता देखते ही बनती है। इन सब चीजों के अलावा बनारस की साड़ी तथा बनारसी ल तथा बनारसी पान विश्व प्रसिद्ध है।
काशी विश्वनाथ मंदिर वह स्थान है जहां भगवान शिव 800 किलोग्राम सोने की परत चढ़े टॉवर के साथ ब्रह्मांड पर शासन करते हैं। यदि आप वाराणसी में इस पवित्र स्थल की यात्रा की योजना बना रहे हैं, तो कुछ चीजें हैं जो आपको जाननी चाहिए। सबसे पहले, अपने कैमरे, मोबाइल फोन और इलेक्ट्रॉनिक उपकरण घर पर ही छोड़ दें। अगर आप विश्वनाथ कॉरिडोर में मोबाइल को गंगा द्वार से अंदर ले जाइए और विश्वनाथ मंदिर कॉरिडोर में अंदर लॉकर में जमा कर लीजिए और बाबा का दर्शन करने के बाद अपना मोबाइल फोन ले लीजिए उसके बाद आप वहां पर अपना फोटो खींच सकते हैं।
पौराणिक कथाओं के अनुसार या नगरी भगवान शिव के त्रिशूल पर टिकी हुई है। जब संकट काल आता है तो शिवजी इस नगरी को ऊपर तथा संकट पर जाने के बाद उसे पुनः देते हैं। मान्यता है कि काशी में रहने वाले भक्त को भगवान शिव खुद तारक मन्त्र देकर उन्हें मुक्ति प्रदान करते हैं। यही कारण है कि बहुत से लोग जीवन के अंतिम पड़ाव में बाबा विश्वनाथ की नगरी में आकर बसना चाहते हैं. पवित्र और प्राचीन नगरी काशी के बारे में मान्यता है कि यहां पर कण-कण में शिव का वास है।
औरंगजेब आधुनिक भारत में एक विवादास्पद व्यक्ति है, जिसे अक्सर “हिंदुओं के घृणित उत्पीड़क” के रूप में याद किया जाता है। अपने शासन के दौरान औरंगजेब ने गैर-मुसलमानों के खिलाफ लंबे खूनी अभियानों के माध्यम से दक्षिणी भारत के अधिकांश हिस्से को जीतकर मुगल साम्राज्य का विस्तार किया। उसने जबरन हिंदुओं को इस्लाम में परिवर्तित किया और हिंदू मंदिरों को नष्ट कर दिया।
जैसा कि नाम से पता चलता है कि ज्ञानवापी शब्द एक हिंदी शब्द है। ज्ञानवापी का अर्थ है- ज्ञान का कुआं। ज्ञान का कुआं इसलिए कहा जाता है क्योंकि यहां पर भगवान विष्णु ने काशी में ज्ञान का प्रकाश फैलाने के लिए तप किया था। काशी में ज्ञानवापी कुआं भी मौजूद है जिसके पीछे की यह मान्यता है कि भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से बनाया था तथा इसी में बैठकर तप किया था तप करते करते उनके बदन से इतना पसीना निकला कि वह हुआ जल से भर गया इसलिए इसका नाम ज्ञानवापी कुआ पड़ा।
मान्यता: औरंगजेब ने मंदिर तोड़ ज्ञानवापी मस्जिद बनवाई:-
मान्यता है कि 1669 में औरंगजेब ने काशी विश्वनाथ मंदिर का एक हिस्सा तोड़कर ज्ञानवापी मस्जिद बनवाई थी। कुछ इतिहासकार कहते हैं कि 14वीं सदी में जौनपुर के शर्की सुल्तान ने मंदिर को तुड़वाकर ज्ञानवापी मस्जिद बनवाई थी।कुछ मान्यताओं के अनुसार अकबर ने 1585 में नए मजहब दीन-ए-इलाही के तहत विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद बनवाई थी।मस्जिद और विश्वनाथ मंदिर के बीच 10 फीट गहरा कुआं है, जिसे ज्ञानवापी कहा जाता है। इसी कुएं के नाम पर मस्जिद का नाम पड़ा। स्कंद पुराण में कहा गया है कि भगवान शिव ने स्वयं लिंगाभिषेक के लिए अपने त्रिशूल से ये कुआं बनाया था।शिवजी ने यहीं अपनी पत्नी पार्वती को ज्ञान दिया था, इसलिए इस जगह का नाम ज्ञानवापी या ज्ञान का कुआं पड़ा। किंवदंतियों, आम जनमानस की मान्यताओं में यह कुआं सीधे पौराणिक काल से जुड़ता है।
वह दिन दूर नही जब हम अपने आराध्य को फिर से उसी स्थान पर देखेंगे
।।ओम नमः पार्वती पतये हर हर महादेव।।
– कंचन वर्मा बनारसी
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