द्वितीय विश्व यद्ध की समाप्ति के बाद विश्व महा शक्तियों की प्रतिस्पर्धा के बीच फस गया। दोनों महा शक्तियों ने अपनी सर्वोच्चता साबित करने के लिए हथियारों का अंबार खड़ा करना शुरू कर दिया। इस दौर में कई ऐसे मौके आए जब लगा कि दोनों मां शक्तियों के बीच युद्ध हो जाएगा परंतु ऐसा नहीं हुआ इनमें क्यूबा मिसाइल संकट, कोरियाई संकट व कांगो संकट मुख्य है। क्यूबा मिसाइल संकट में तो मानवता को पूरी तबाही की कगार पर ला खड़ा किया था। जब भी किसी देश में संरचनात्मक हिंसा होती है तो विश्व की शांति पर खतरा आ जाता है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद शांति स्थापना के उद्देश्य संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना की गई थी जिसकी अध्यक्षता ने शांति युद्ध की भी क्षमता को कम किया तथा दोनों देशों ने आपस में कई संधि की और परमाणु युद्ध की विशेषता को समझाते हुए शांतिपूर्ण संबंध बनाने की आवश्यकता महसूस की।
शांति का सामान्य रूप से अर्थ ‘युद्ध ना होने की स्थिति’ है। राजनीति शास्त्र में राष्ट्रों के समुदाय के संदर्भ में शांति से हमारा तात्पर्य ‘वसुधैव कुटुंबकम’ के आधार पर आपसी व्यवहार को सुनिश्चित करना है। दूसरे शब्दों में प्रत्येक देश से या आशा की जाती है कि वह संसार के अन्य देशों के साथ अपने सभी तरह के संबंध आपसी सद्भावना, भाईचारे की मन्नू रचना, शांति और अहिंसा के श्रेष्ठ सिद्धांतों के आधार पर करेगा और साम्राज्यवाद उपनिवेशवाद और रंगभेद को नामंजूर कर के अंतरराष्ट्रीय विवादों का हल करेगा।
हिंसा प्रत्यक्ष रूप से हिंसा का समानुपातिक है। अर्थात हिंसा से हिंसा का जन्म होता है। इसलिए यदि शांति स्थापित करनी है तो हिंसा को रद्द करना होगा केवल अहिंसा और सकून की शांति स्थापित करेंगे और उसे बढ़ावा देंगे। संयुक्त राष्ट्र सच्ची वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन का संविधान ने सही अवलोकन किया है क्योंकि युद्ध व्यक्ति के मस्तिष्क में शुरू होता है या व्यक्ति के मस्तिष्क में होता है इसलिए शांति के मंत्र की रचना की जानी चाहिए। विश्व के विभिन्न भागों में प्राचीन संतो और दार्शनिकों ने आध्यात्मिक सिद्धांतों के उपदेश दिया था शांति प्राप्त करने के लिए ध्यान और इच्छाशक्ति होना जरूरी है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि हिंसा मानव व्यवहार की ही उपज है परंतु यह भी सही है कि हिलसा कुछ सामाजिक संरचनाओं में भी जमी हुई है। संरचनात्मक हिंसा की समाप्ति के लिए लोकतांत्रिक समाज और न्याय का सृजन आवश्यक है। शांति लोगों के समरस अस्तित्व की ही उपज है। हम शांति की कोई सीमा निर्धारित नहीं कर सकते। यह एक प्रक्रिया है जिससे नैतिक और भौतिक साधनों का सक्रिय अनुसरण किया जाता है।
- आतंकवाद को खत्म किया जाना चाहिए।
- अन्याय पूर्व तथा लोकतांत्रिक समाज की रचना करनी चाहिए।
- लोगों के मन में प्रेम और सौहार्द की भावना होनी चाहिए।
- भेदभाव पूर्ण सामाजिक रचना को समाप्त की जानी चाहिए।
- उपनिवेशवाद का शिकार होने से बचना होगा।
- समाज में व्याप्त लैंगिक हिंसा को रोकना होगा।
संरचनात्मक हिंसा के विभिन्न रूप निम्नलिखित हैं-
(1) जाति भेद - भारत में जाति प्रथा प्रचलित है परिणाम स्वरूप सदियों से निम्न जाति के लोगों के साथ अच्छे तो जैसा व्यवहार किया जाता रहा है तथा व उत्पीड़न का शिकार होते रहे हैं। भारतीय संविधान में छुआछूत और गैरकानूनी करार दिया गया है परंतु इसके बावजूद इस समस्या को समाप्त नहीं किया जा सका है। आज भी जातिगत हिंसा विभिन्न रूपों में देखने को मिलती है। (2) लैंगिक हिंसा - भारत में पितृसत्तात्मक व्यवस्था है जहां पुरुषों को अधिक महत्व प्रदान किया जाता है तथा स्त्रियों से अपेक्षा की जाती है कि वे उनके अधीन रहे या लैंगिक हिंसा अनेक रूपों में देखने को मिलती है जैसे कन्या भ्रूण हत्या, लड़कों व लड़कियों के लालन-पालन में भेदभाव करना, बालविवाह, पत्नी को उत्पीड़ित करना, दहेज से संबंधित अपराध, कार्य स्थल पर भेदभाव, व यौन शोषण बलात्कार तथा परिवार के सम्मान के नाम पर स्त्री हत्या आदि भारत में स्त्रियों की गिरती संख्या इस बात का सूचक है। (3) नस्लवाद - नस्लवाद ने मानवता को विभिन्न नस्लों के आधार पर विभाजित कर कुछ नस्लों के साथ भेदभाव पूर्ण व्यवहार किया जाता है जो कि मानवीय है। प्राचीन काल में अमेरिका में अश्वेत अर्थात काले लोगों को गुलाम बनाने की प्रथा थी दक्षिण अफ्रीका में भी रंगभेद की नीति अपनाई जाती थी। हिटलर के समय में यहूदियों के साथ मानवीय व्यवहार किया जाता था। पश्चिमी देशों में तो आज तक नस्ली भेदभाव जा रही है जिसका शिकार एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के विभिन्न देशों के अप्रवासी होते हैं। (4) सांप्रदायिकता - धर्म के आधार पर होने वाले हिंसा के कारण भी अनगिनत लोगों को अपनी जान के हाथ धोना पड़ता है। भारत में विभाजन के समय से लेकर आज तक हजारों लोग सांप्रदायिकता के विभीषिका को झेल रहे हैं। गुजरात तथा पंजाब में 1947 में हुए सांप्रदायिक दंगे इसका ज्वलंत उदाहरण है। (5) उपनिवेशवाद - उपनिवेशवाद के दौर में अनेक देशों को गुलामी के दंश को झेलना पड़ा था जिससे वह आज तक उबर नहीं पाए हैं। वर्तमान में भी फिलिस्तीन इजराइली प्रभुत्व के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। (6) आतंकवाद - इस प्रकार की हिंसा के शिकार व्यक्ति जिस प्रकार के मनोवैज्ञानिक और भौतिक नुकसान ओं से गुजरते हैं वह उनके मन में व्यवस्था के प्रति अनेक शिकायतें उत्पन्न कर देते हैं। कभी-कभी यह शिकायतें इतने उग्र हो जाती है कि वे हिंसा के नए दौर की शुरुआत कर देते हैं। आतंकवाद इसका ज्वलंत उदाहरण है। 1947 में भारत-पाकिस्तान विभाजन के दौरान हुई हिंसा के कारण दोनों देशों के बीच उत्पन्न हुई क्रीड़ा के परिणाम स्वरूप भारत और आतंकवाद के अभिशाप को झेल रहा है.
महा शक्तियों का प्रभाव द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से ही विश्व 2 माह शक्तियों के बीच बढ़ती प्रतिद्वंदिता के बीच फस कर रह गया। परंतु सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिका एकमात्र महाशक्ति के रूप में उभरा जिसने अपनी ताकत व क्षमता के बल पर अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था तक को बदलने की कोशिश की तथा संयुक्त राष्ट्र संघ तक की परवाह नहीं की। इराक पर अमेरिका ने अपने फायदे के लिए मनमाने ढंग से युद्ध थोपा, अफगानिस्तान में सैन्य हस्तक्षेप किया जिससे बहुत जनहानि हुई। विश्व शांति के लिए ऐसे राष्ट्रों का अंकुश लगाना आवश्यक है। आतंकवाद राष्ट्रों के स्वार्थ पूर्ण आचरण के कारण उत्पन्न हुआ आतंकवाद और इतना वीभत्स रूप धारण कर चुका है कि अब उसको रोकने में पूरा विश्व समुदाय असफल सिद्ध हो रहा है। यहां तक कि अमेरिका जैसी महाशक्ति भी आतंकवाद के डर से बच नहीं सकी। अलकायदा के कुछ आतंकवादियों ने 11 सितंबर 2001 को अमेरिका के न्यूयॉर्क स्थित वर्ल्ड ट्रेड सेंटर तक को ध्वस्त कर डाला था। नस्ल संघार नरसंहार भी विश्व शांति की स्थापना में एक बाधा है। 1994 में अफ्रीका में 2 जनजाति ने लगभग 500088 लोगों को मार डाला और विश्व समुदाय पहले से खुफिया जानकारी होने के बावजूद मुख दर्शन बना रहा। इस घटनाक्रम में किसी भी प्रकार का अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप नहीं किया गया। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी रवांडा में हो रहे हिंसा के नंगे नाच को रोकने के लिए किसी भी प्रकार का शांति अभियान चलाने से मना कर दिया था।
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